ये तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलें तो भी सस्ता जान।।
ये वचन परमसन्त भी कबीर साहिब जी के हैं उन्होने ये वचन उस समय फरमाये थे जब एक जिज्ञासु श्री कबीर साहिब जी से नाम दीक्षा लेने और उन्हें अपना गुरु धारण करने के लिये उनके श्री चरणों में उपस्थित हुआ था। जब वह श्री कबीर साहिब जी के घर गया तो वे उस समय घर पर नहीं थे। घर में माता लोई जी थीं। माता लोई जी को उसने प्रणाम किया और अपने आने का कारण बताया कि मैने सत्संग में श्रवण किया है और सदशास्त्रों में भी पढ़ा हैं कि
दुधां बाझ न रिझदी खीर जिवें मुर्शिद बाझ न मिलें रहमान भाई।
लिखया विच हदीसां दे आया ऐ हुक्म अल्लाह दा विच कुरान भाई।।
मैंने सुना है कि जिस प्रकार दूध के बिना खीर नहीं बनती इसी तरह ही सतगुरु के बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। न ही परलोक मे जीव की सदगति होती है । श्री कबीर साहिब जी की बड़ी महिमा सुनी है कि वे परमात्मा से मिलाने वाले हैं, भवसागर से पार लगाते हैं। इसलिये उनसे नाम दीक्षा लेने और उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु बनाने के लिये उपस्थित हुआ हूँ ।
माता लोई ने कहा कि वे अभी घर पर नहीं हैं देर से आयेंगे। आपको अगर जल्दी हो तो नाम दीक्षा मैं भी दे सकती हूँ क्योंकि उनकी मुझे आज्ञा है नाम देने का अधिकार उन्होंने मुझे दे रखा है। उस जिज्ञासु ने विनय की कि ठीक है आप ही नाम दीक्षा दे दीजिए आपकी अति कृपा होगी।
माता लोई अन्दर गयी । एक तराजू और छुरी लेकर बाहर आयी उस जिज्ञासु के सामने बैठकर छुरी तेज़ करने लगी। वह जिज्ञासु ये देखकर बड़ा हैरान भी हुआ और भीतर भीतर भयभीत भी हो रहा था और सोचने लगा कि नाम दीक्षा देने में छुरी तेज़ करने का क्या काम है? कहीं मैं गलत जगह पर तो नहीं आ गया? उसने माता लोई से कहा कि पहले आप मेरा काम कर दें तो अति कृपा होगी?
माता लोई ने कहा कि आपका ही काम कर रही हूँ। उसने कहा कि मेरा ही काम कर रहीं हैं? मैं समझा नहीं। माता लोई ने कहा इस छुरी से तुम्हारा सिर काटा जायेगा और उसे इस तराज़ू के एक पलड़े में रखा जायेगा। दूसरे पलड़े में गुरुमन्त्र (प्रभु का सच्चा नाम) रखा जायेगा अगर तुम्हारा सिर नाम के बराबर वज़न में तुल गया तो नाम दे दिया जायेगा और वज़न में अगर कम रहा तो नाम नहीं मिलेगा।
यह सुनते ही वह भयभीत होकर वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया और मन में कहने लगा जो मैं विचार कर रहा था कि मैं कहीं गलत जगह पर तो नहीं आ गया? मेरा विचार ठीक ही निकला। जब सिर ही कट जायेगा तो नाम कौन लेगा? नाम तो क्या मिलना था जान से और हाथ धो बैठता। वह डर के भागा जा रहा था और श्री कबीर साहिब जी के बारे में भला बुरा कहता जा रहा था।
आगे से रास्ते में श्री कबीरसाहिब जी मिल गये ।उन्होंने उसे रोक कर उससे पूछा कि भाई श्री कबीर साहिब ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? जो उन्हें भला बुरा कह रहे हो? श्री कबीर साहिब जी को वह व्यक्ति पहचानता नहीं था। उसने अत से इति तक सब वृतान्त कह सुनाया कि उनकी बड़ी महिमा सुनी थी परन्तु वहाँ तो सब कुछ उसके विपरीत ही पाया। बड़ी मुश्किल से जान बचा कर आया हूँ नहीं तो आज काम तमाम हो जाता। जान बची सो लाखों पाये।
श्री कबीर साहिब जी ये सुनकर मन ही मन मुस्काये और सोचने लगे ये बेचारा कच्चा जिज्ञासु है। इसे शरीर की नश्वरता और सतगुरु के नाम की कीमत, महत्व और प्रभाव का पता नहीं है। इसीलिये ऐसा कह रहा है। तब उन्होंने वचन उच्चारण किये।
ये तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलें तो भी सस्ता जान।।
कि ये तन विष की बेल के समान है इस पर विषय वासनाओं के काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, राग द्वेष, ईर्ष्या, तृष्णा रूपी कई विषैले फल ही लगते हैं जिनके सेवन करने से जीव हमेशा दुःखी परेशान और विपदाओं से घिरा रहता है। जिनके कारण चौरासी के बन्धन और आवागमन के चक्र में फँसकर दुःख के झूले झूलता रहता है और ये शरीर क्षणभंगुर भी है जिसका पल का भी भरोसा नहीं है इस शरीर को जिसे तुम बचाना चाहते हो इसकी हैसियत भी क्या है?
आदमी का जिस्म क्या है जिस पर शैदां है जहाँ।
एक मिट्टी की इमारत एक मिट्टी का मकाँ।
खून इसमें गारा है और ईंटे हड्डियाँ।
चन्द स्वाँसों पर खड़ा है ये ख्याली आसमाँ।।
मौत की पुरज़ोर आँधी जब इससे टकरायेगी।
देख लेना ये इमारत टूट कर गिर जायेगी
आदमी का शरीर है ही क्या जिस पर सारा जहान ही दीवाना है इसे सजाने सँवारने खिलाने पिलाने में ही दिन रात मुब्तिला है। ये एक मिट्टी की इमारत ही तो है पाँच तत्व का पुतला जो खून के गारे और हड्डियों की ईंटों से तैयार किया गया है ये मकान। चन्द स्वाँसों की बुनियाद पर ही खड़ी है ये इमारत। मौत की आँधी के एक ही झटके से यह इमारत गिर जाने वाली है। फिर इस सिर की कीमत ही क्या है? जिसे तुम बचा कर रखना चाहते हो?
अपने दिल से ये वहम निकाल दे कि ये तेरा शरीर सदा कायम रहेगा। ये कायम रहने वाला नहीं है नाशवान है। तेरे पहले भी कितने ही शरीर हो चुके हैं और आगे भी न जाने कैसी सूरत पेश आयेगी? इसलिये इससे इतनी मुहब्बत न रख क्योंकि इसका अंजाम अब हो या कि फिर इसे मौत तो आनी ही है। चाहे कोई भी हो औलिया फकीर राजा रंक सबको आखिर में कब्र में ही लेटना पड़ता है।
इस मौत के पन्जे से आज तक जब कोई न बचा तो तू सदा ज़िन्दगानी की उम्मींद कैसे कर रहा है? फिर इसे बचा कर करोगे भी क्या? इससे हासिल भी क्या करोगे? वही कुछ जो आज तक करते आये हो? संसार का मोह, धन का लोभ, मैं मेरी, अहंकार, सांसारिक कामनाओं और ख्वाहिशों की पूर्ति और क्या प्राप्त करोगे? सांसारिक मोह और कामनाओं की पूर्ति से तुम्हें मिला भी क्या?
यही कि चौरासी का बन्धन आवागमन का चक्र सदा के लिये दुःख चिन्ता कलह कल्पना, अशान्ति। इस सब के लिये ही शरीर बचाना चाहते हो? इतने जन्म माया की भेंट किये तो एक जन्म मालिक के निमित्त, सन्त सतगुरु की सेवा में और भजन भक्ति में लगा के तो देख।
जिसे वास्तविक ज्ञान हो चुका है वह एक तो क्या लाखों सिर भी कुर्बान करने को तैयार रहता है। अगर करता है तो वह भी कम है। अगर एक ही सिर देने से नाम के अमृत की प्राप्ति होती है, अमृत के रुाोत सतगुरु मिलते हैं जिसे पाकर जीव सदा के लिये इन दुःखों से छुटकारा पा कर सच्चे आनन्द और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, सदा के लिये शाश्वत आनन्द प्राप्त होता है तो अगर सौ सौ बार भी सीस कुर्बान करना पड़े तो समझो सौदा सस्ता ही है।
बल्कि सत्य तो यह है कि जिसने भी अपने आप को बचाने की कोशिश की वह मृत्यु को प्राप्त हुआ है, जन्म मरण को प्राप्त होता है और कई कई बार मरता है। जिसने अपने को सतगुरु पे कुर्बान कर दिया है सतगुरु की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिये अपना सब कुछ अर्पण कर दिया है उसने सब कुछ पा लिया है। वह सदा के लिये अमर हो गया है। इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जिसने भी प्रभु भक्ति की राह में अपने जीवन को लगाया उनके नाम आज रोशन हैं। वे अमर हो गये हैं।
आप कहेंगे कि हम तो कलयुगी जीव हैं इतनी कठिन तपस्या साधना और कुर्बानी नहीं दे सकते। लेकिन आजकल वर्तमान युग के समय को देखते हुये महापुरुषों ने भक्ति का सौदा और भी सस्ता कर दिया है सिर देने, आँख निकाल कर देने की कोई आवश्यकता नहीं और नाही संसार को छोड़कर जंगलों में जाने की ज़रूरत है और नाही कोई कठिन तपस्या करनी है।
श्री गुरु महाराज जी ने हम जीवों पर दया और उपकार करके अपना प्यार बख्शिश करने के लिये बड़े ही सरल साधन बना दिये हैं जिन्हें संसार का प्रत्येक व्यक्ति चाहे छोटा है या बड़ा, वृद्ध है या जवान, स्त्री है या पुरुष, अमीर है या गरीब सभी संसार के सब कार्य व्यवहार करते हुये भी बड़ी सुगमता से इन साधनों का पालन करके अपने जीवन को सुखी एवम सफल बना सकते हैं वो साधन हैं।
श्री आरती पूजा सेवा सतंसग सुमिरण और ध्यान।
श्रद्धा सहित सेवन जो नित करे निश्चय हो कल्याण।।
इसलिये गुरुमुखों का कर्तव्य है इन पांचों नियमों का पालन करते हुये अपने मालिक सतगुरु का प्यार व आशीर्वाद प्राप्त कर अपने जीवन को सफल बनायें और परलोक सँवार लें।
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